काकी

 तुम्हें कहो कुछ तुम करते कुछ हो यार.....तुम भी हनुमान जी की तरह पूरा पहाड़ उठा लाते हो..रसोई से सुमन ने मनोज को उलाहना देते हुए कहा। तुम्हें तिल के लड्डू लाने को कहा था और ये तिल ले आये। मनोज के सामने तिल का पैकेट रखते हुए कहा।

“मुझे कहां आता है लड्डू बनाना। प्रसाद के लिए बाज़ार से बने बनाये ले आते, झंझट ख़त्म.” सुमन अब खीज कर बोली।

“क्या करूं यार दुकानदार ने जबरन पकड़ा दिए,बोला भाई घर का शुद्ध खाकर देखो।. इंटरनेट पर देख लेना बहुत सी विधियां मिल जाएंगी लड्डू बनाने की,वो सबका गुरु है।” मनोज बोला और ऑफिस के लिए निकल गया।

सुमन ने तीन-चार विधियां देख लीं, लेकिन कुछ समझ नहीं आया। ठीक नहीं बनी या बिगड़ गई, तो तिल और सामान बेकार हो जाएंगे। 

तभी पड़ोस की निर्मला काकी का ध्यान आया। काकी से पूछकर बनाऊंगी, तो बिगड़ने पर पूछ तो पाऊंगी कि अब क्या करूं? पर आज तक तो कभी उनके पास जाकर बैठी नहीं अब अपने काम के लिए जाना क्या अच्छा लगेगा.?लेकिन कोई चारा नहीं था, तो पहुंच गई।

“ आओ-आओ बहु ” काकी उसे देखते ही खिल उठी।

“वो काकी मुझे तिल के लड्डू बनाने थे। क्या आप मुझे बता दोगे, थोड़ा टाइम तो लगेगा..."सुमन ने झिझक से पूछा।

“अरे क्यों नहीं बहू! चल अभी बना देते है,इसमें का कोई पहाड़ उठाना पड़ता है....और यहां कौन सा हम संजीवन बूटी तोड़ रहे....चल,अब चाय भी तेरे ही घर तेरे हाथ की पीऊंगी।"

काकी सिर पर पल्लू देती हुई तुरंत चली आईं सुमन के साथ। तिल के लड्डू बनाते हुए तिल के और भी न जाने कितने व्यंजन और यादें सुना दी काकी ने। सुमन देख रही थी कि काकी अनुभव और ज्ञान का जैसे ख़ज़ाना है और वो अब तक पड़ोस में रहते हुए भी इस ख़ज़ाने से वंचित रही।काकी से बात करते हुए कितना कुछ सीख सकती थी वो अब तक।

ज़रा-सा अपनापन और मान देते ही स्नेह का झरना फूट पड़ा उनके हृदय से. आभासी गुरु में यह स्नेह, यह आत्मीयता, जीवंतता कहां मिलती है भला।

“ये लो बहू!बन गये तुम्हारे तिल के लड्डू .” उनके पोपले मुंह पर प्रसन्नता और संतुष्टि थी।

सुमन आश्चर्य चकित थी दूसरे की मदद करके इतनी ख़ुशी भी हो सकती है किसी को।

“अब आप आराम से बैठिए काकी. मैं चाय बनाती हूं. कितना कुछ सीखना है आपसे अभी।”

काकी के पोपले मुख पर छाए स्नेह के भावों की मिठास ने सुमन को तृप्त कर दिया। उसने तय कर लिया अब जो भी सीखना है, इसी जीती-जागती गुरु से ही सीखूंगी।

हमारे आसपास भी ऐसे जीवंत गुरु है,अनुभव का खजाना,विरासत को सजोये हुए वे नंदा दीप से जल रहे है,क्या हम उनके उजास से लाभान्वित हुए है....? इंटरनेट पर खंगालिए,सीखिए,पर थोड़ा सा कभी उनकी तरफ एक कदम बढ़ाकर देखिए,वे जो स्नेह की बरसा करेंगे वह आपको आत्मिक तृप्ति देंगे,बिना किसी रिचार्ज के चार्ज के.....

आपका दिन शुभ हो।

।।शिव।।

Comments

Prashant Pareek said…
आपने बिल्कुल सही लिखा है। आज की पीढ़ी को अपने घर या आस पड़ोस के बड़े बुजुर्ग से पूछना अपना अपमान और गूगल से पूछना अपना शान समझते है।
Veena bhojak said…
साधुवाद भाईसाहब,परिवार भावना को बनाये रखने का सवोत्तम गुण है ये।
संगीताजी,प्रशांतजी,वीणाजी आपका धन्यवाद।

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