विरासत
काव्य और कृति हमारे पुश्तैनी गांव जाने के लिए पिछले एक सप्ताह से बहुत उत्साहित थे।
दोनों ही सफ़र के लिए अपने छोटे छोटे बैगों में अपने लिए चिप्स, चॉकलेटस और न जाने क्या-क्या इक्कठा कर रहे थे।
ज्योत्सना सुबह से ही किचन में सफ़र का खाना तैयार करने में जुटी थी और मैं.... समझ से परे उत्साहहीन सा इधर उधर टहल कर घड़ी की सुइयों को आगे बढ़ने की ताकीद कर रहा था।
उन सब में उत्साह था, ज्योत्सना के लिए वह हवेली उसका पहला घर थी तो बच्चों के लिए सबसे अच्छा स्थान जहाँ जाकर वे खुश होते थे।
पर मेरा मन तो चोर की तरह धड़क रहा था,कुछ कहना चाहता था,पर ज़ुबान उन बच्चों की मासूमियत और ज्योत्सना के उत्साह को देख काठ की बन जाती। ज़ुबान से निकल ही नहीं रहा था कि गांव वे आखरी बार जा रहे है।
राजस्थान के घोरों के बीच बसा एक छोटा सा गांव था हमारा सुजानगढ़। बरसात आती तो गांव के बाहर बसा तालाब भर जाता और रेगिस्तान में जन्नत का अहसास करवा देता।
गर्मी में लू के थपेड़ों के बीच भी तालाब पर बने हनुमान जी के मंदिर में लगे सैकड़ों पेड़ो से होकर आती हवा सुकून देती। छोटे छोटे मोखों से आती हवा जब मंदिर की घण्टियाँ पर पड़ती तो संगीत की स्वर लहरिया गूंज उठती।
गांव में हवेली का एक अपना अलग ही स्थान था,हवेली वाले के नाम से ही हमें सब जानते थे।
टोडों के सहारे निकले बालकनी को मात करते छज्जों पर बैठे सैकड़ो कबूतर कभी एक साथ उड़ते तो जो आवाज निकलती वो रोमांच जगा जाती।
बीसियों साल हो गए गांव छोड़े पर जब भी गया तो अपणायत ने मन मोह लिया। गांव के लोग भाईजी के साथ ऐसे सत्कार करते कि मन करता शहर छोड़कर आ जाऊं वापस। ओये, अब्बे,मिस्टर,सर् से दूर हो जाऊं।
ज्योत्सना तो बहुत बार कह चुकी गांव में ही कुछ कर लो,अब तो सरकारी योजनाएं भी बहुत है।
ज्योत्सना और बच्चे तो सफ़र के इस मनमोहक दृश्य में खो गए थे, बरसात के कारण रेतीले टीबों पर हरियाली आ गयी थी।
पर मैं इस सफर में था ही नहीं... अंदर से बेचैन....शून्य में खोया....…
शहर के कोलाहल और प्रदूषण से एकदम अछूता… अपणायत की मिशाल ...मेरा अपना छोटा-सा गांव।
गांव पहुंचकर, जैसे ही हवेली के गेट पर पहुंचे मनसुख चाचा जी का पूरा परिवार स्वागत में खड़ा था,बरसों से हवेली की देख रेख कर रहे जीवनसिंह जी और उनका परिवार भी था।
कोई गले मिलने को आगे बढ़ा तो कोई झुककर पैर छूने को...इसी बीच बच्चों की टोलियों ने गाड़ी से सारा सामान निकाल हवेली के अंदर ले गए।
बड़े से दरवाजे को पार करते ही मेहंदी भीनी-भीनी सुगंध ने हमारा स्वागत किया। जैसे-जैसे हवेली के अंदर कदम बढ़ते गए, थकान दूर होती गई।जीवन काका ने हवेली को बड़े जतन से संभाल रखा था.।
हवेली के पास लगा बोरडी (बैर का पेड़) के पुराने पेड़ को देखकर लग रहा था जैसे वो अपने राजिया को बुला रहा हो..... यही तो नाम था मेरा,बापू इसी नाम से तो बुलाते थे।
बोरडी की फैली हुई शाखाएं ऐसे महसूस हो रही थी जैसे दो बाहें हो किसी बुजुर्ग की...
काव्य ने हवेली के एक गोखे से हाथ बाहर कर खेजड़ी के लगे खोखे (सुखी फली) को तोड़ा तो लगा मेरा बचपन करवट ले रहा है।
तिबारे में रखी चार पाई पर कृति बैठी तो लगा दीदी बैठी है,अभी डांट देगी या बापूजी से शिकायत करने की धौंस जमायेगी...यह सोचते ही मन का चोर डराने लगा।
ज्योत्सना रसोई में गई तो लगा वो माँ के साथ काम करा रही हो...मेरी आँखें बरबस उधर गई तो गिन्नियां काकी आज मां जैसी ही लग रही थी।
बच्चे हवेली के हर हिस्से मैं खेल रहे थे। उनकी चंचलता,हंसी, चेहरे पर चमक और खुशी देखकर लगा मेरा बचपन लौट आया है। बच्चे अपनी अठखेलियों से मेरे बीत चुके बचपन को साकार कर रहे थे।
हवेली की हर दीवार और हर कोना मुझे अपनी जड़ों से जोड़ रहा था....बापूजी और मां की यादों से मुझे जोड़ रहा था।
शहर की भाग दौड़ भरी जिंदगी में ऐसे सुकून के पल कहां मिलते हैं जो गांव में...अपने पुरखों की माटी में... पुरखों के बनाएं घर जो आज हमारी धरोहर है उसमें मिलता है।
उसकी हर दीवार में सपने है,संघर्ष है और जय है.... मेरी आंखें बंद हुई तो लगा मां बापू जी मंद मंद मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं ।ऐसा लगा जैसे मां कह रही है -बाबू! कभी तो तुझे हमारी याद आती होगी ...? कभी तो इस प्रॉपर्टी को संभालने के बहाने आ जाया कर।
तेरे बापू ने बड़ी मेहनत करके अपने पुरखों की संपत्ति को आने वाली पीढ़ियों के लिए सहजा है,बढ़ाया है....अचानक फोन की घंटी ने मेरा ध्यान भंग किया।
आंखों से आंसू बह रहे थे फोन की तरफ देखा तो हवेली के खरीददार का फोन था जो होटल बनाना चाहते थे। मैंने फोन उठाकर कह दिया "यह कोई प्रॉपर्टी नहीं मेरे मां बापू जी की धरोहर है । मैं इसे नहीं बेचूंगा।"
।।शिव।।
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