जीवट वाला जीवन
अरे,यह क्या लगाया है संगीता दी?' 'यह कोई नयी बेल लाये हो क्या? पहले तो नहीं थी...स्नेहा अपनी आदत के अनुसार सवालों कि बौछार कर रही थी। सवालों का एक जबाब देते हुए संगीता ने कहा-"लगाई नहीं अपने आप ही उग आई।" क्या कह रही हो दीदी!अपने आप उग आयी है और देखो कितनी जल्दी-जल्दी बढ़ रही है।' 'अरे, वह तो जंगली है। उखाड़ फेंको उसे।'
स्नेहा के सवालों के बीच अपनी हंसी को रोक चेहरे पर झुंझलाहट लाकर संगीता ने कहा-'बिना देख भाल के इतनी तेजी से बढ़ रही है।
यह भी तो हरियाली ही फैला रही है और यह भूलकर कि ये अपने आप उग आई है इसके पत्ते देख कितने सुंदर है,कटावदार। बिना देख भाल के पल रही है, बढ़ रही है तो जंगली हो गई? यह तो तुझे बता दिया कि अपने आप उग आई नहीं तो तू लड़ रही होती कि नर्सरी से मेरे लिए भी ले आते या मुझे ही कह देते नर्सरी जाते हुए मैं भी ले आती। क्यों स्नेहा सही कहा ना?'
तभी उनका ध्यान गया सामने वाले गार्डन से आती मस्ती भरे हंसी, ठहाकों की आवाज़ कीओर। थोड़ी देर पहले हुई जोरदार बारिश औऱ अब हो रही बूंदाबांदी में पीछे की बस्ती के बड़े छोटे बच्चे, उछल-उछल कर नहा रहे थे। कुछ मस्ती में गा रहे थे, कुछ धक्का-मुक्की करते कीचड़ में ही लोट-पलोट हो रहे थे। उनका बिना लाग लपेट का उछाह देखा तो दोनों के चेहरे पर मुस्कान आ गयी।संगीता के मुँह से बरबस ही निकल गया....'जंगली नहीं, जीवट वाली।'
स्नेहा ने भी संगीता की बात में हां मिलाते हुए कहा-सही कह रही हो दीदी! हर पौधे को हक़ है जीने का,बढ़ने का....उस पौधे को तो ज्यादा हक है जो जीवट से आगे बढ़ना चाहता है......
पास ही लगी उस बेल पर बारिश की बूंदे गिर रही थी.…पत्तों पर गिरती बूंदों से निकला संगीत मानों कह रहा हो...जीवट बिन जीवन कहाँ....
।।शिव।।
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