वो माँ जो है...
चारों बहुऐं अपने-अपने कमरे में सोने जा चुकी,बाबू जी भी निंद्रा रानी का वरण कर चुके...तीन आवाज़ ही उस शांति को तोड़ रही थी।
पहली कभी कभार सड़क से गुजरते वाहनों की आवाज़ जो रात के सन्नाटे में तेज होती है और सड़क किनारे वाले घरों के लिए तो आफ़त भी।
दूसरी कोठी में लगाये पिताजी के पेड़ पौधों में बसे झींगुरों की।
औऱ तीसरी बर्तनों की आवाज़ देर रात तक आ रही थी…रसोई का नल चल रहा है,माँ रसोई में है….
सबका काम हो गया हो भले ही पर माँ का काम बकाया रह गया था। काम तो सबका था पर माँ तो अब भी सबका काम अपना ही मानती है।
दूध को गर्म करके फिर ठण्ड़ा करना उसके बाद जावण देना है…ताकि सुबह बेटों को ताजा दही मिल सके।
रात भर सिंक में रखे बर्तन माँ को कचोटते हैं,चाहे तारीख बदल जाये, सिंक साफ होना चाहिये।
उधर माँ रसोई में है पर दूसरी ओर बर्तनों की आवाज़ से बहू-बेटों की नींद खराब हो रही है।
बड़ी बहू ने बड़े बेटे से कहा “तुम्हारी माँ को नींद नहीं आती क्या? ना खुद सोती है और ना ही हमें सोने देती है”
दूसरी वाली अपने पति से वीडियो कॉल करते हुए शिकायत कर रही थी ” अब देखना सुबह चार बजे फिर खटर-पटर चालू हो जायेगी, तुम्हारी माँ को चैन नहीं है क्या?”
तीसरी बहु भी कमरे में पति को उलाहना देते हुए कह रही थी "यार कब तक सहन करें इस प्रॉब्लम को,तुम भैया औऱ छोटे से बात क्यों नहीं करते कि माँ-बाबू जी को ऊपर वाले फ्लोर पर बने कमरे में शिफ्ट कर दें...पर वो तो स्टोर है,उसमें मां बाबूजी को कैसे रखेंगे कहकर पहली बार बेटे ने थोड़ी सी चोंच खोली तो बहु ने भी तीखा जबाब दिया" कितनी जगह चाहिए अब उनको? इतना ही प्रेम उमड़ रहा है तो जाओ तुम भी खटर पटर में लग जाओ...
सबसे छोटी बहू ने अपने पति से कहा ” प्लीज़ जाकर ये ढ़ोंग बन्द करवाओ कि रात को सिंक खाली रहना चाहिये।”
माँ अब तक बर्तन माँज चुकी थी । झुकी हुई कमर,कठोर हो चुकी हथेलियां,लटकी सी त्वचा,घुटनों में तकलीफ, आँख में पका मोतियाबिन्द,माथे पर टपकता पसीना,पैरों में उम्र की लड़खडाहट भले ही उसको उम्रदराज घोषित कर रहा हो। पर आज भी दूध का गर्म पतीला अपने पल्लू से उठा लेती है,आज तक नहीं कहा अंगुलियां जल गई,क्योंकि वो माँ है।
दूध ठण्ड़ा हुआ तो जावण भी लगा दिया, घड़ी की सुईयां थक गई…मगर…
माँ ने फ्रिज में से भिण्ड़ी निकाल ली और लगी फिर उन्हें काटने। नींद तो हर इंसान को आती है,उन्हें भी आती होगी पर जैसे अभेद्य दीवार बना ली थी उसने नींद,थकान,आलस औऱ अपने काम के बीच,शायद इसलिए क्योंकि वो मां है।
रात के बारह बजे तक सुबह की भिण्ड़ी कट गई,अचानक याद आया कि गोली तो ली ही नहीं।
बिस्तर पर तकिये के नीचे रखी थैली निकाली,कमरे की खिड़की औऱ दरवाजों से आती रोशनी में गोली के रंग के हिसाब से मुंह में रखी और गटक ली। लाइट इसलिए नहीं जलाई क्योंकि बाबूजी की नींद टूट जाती है और तेज रोशनी से उन्हें परेशानी है।
बगल में एक नींद ले चुके बाबूजी ने कहा ” आ गई”
“हाँ, आज तो कोई काम ही नहीं था”
माँ ने जवाब दिया ।
।।शिव।।
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