जिंदगी एक कशमकश

 जब गुड्डा गुड्डियों संग खेलने का वक्त था तब हाथ मेंहदी से भर दिए गए। बोली भी तुतलाकर बोलती थी तब निकाह मंजूर करवा लिया गया।

जब तक यही समझती थी कि खेल रही हूं,अम्मी की गोद में और उस खेल को समझ पाती उससे पहले हमराह मिल गया था।

जब पढ़ने वाली उम्र हुई तब तक खुद ही अम्मी बन गई थी,वो खुदा की नेमत थी कि फूफी ने घर सिर पर उठा लिया इसलिए अस्पताल ले गए और जान बच गई थी।

स मझने वाली उम्र आई उससे पहले लख्ते जिगर से अम्मी तक का सफ़र पूरा हो गया।चार बेटियां और दो बेटों के साथ एक कमरे,चोबरे और बाहर टीन लगाकर बनाई गई रसोई वाले घर की मालकिन जो थी यह और बात थी कि पर्दा हर वक्त जरूरी था पर इज्जतघर नहीं था इसलिए दिन छुपने का इंतजार करो और दिन छुप जाए तो नशेड़ियों से डरो।

जिस उम्र में नादानियां होती है,मस्ती होती है उस उम्र में जिम्मेदारियां थी,रिश्ते थे और उनको निभाने का फर्ज समझा दिया गया।

जिम्मेदारियों का बोझ उठाते उठाते कब वो दो सौतानों के सात बच्चों सहित तेरह बच्चों की अम्मी हो गई थी,पता ही नहीं चला।

इंसान बढ़ते रहे,पैर भारी होते रहे और आमदनी पर भारी पड़ते खर्चों के बोझ ने हमराह को कब ठेके पर  और नालियों में पटक दिया पता ही नहीं चला।

जिस समय जीवन को खूबसूरत बनाने की समझ बनती उस समय तक तो किसी कसाई के खूंटे से बंधी निरीह गाय सी अपने आपको ही खो चुकी थी।

कसूर क्या था मेरा,बस इतना सा कि मैं बोल नहीं पाई....? कैसे बोलती? किसी ने सिखाया भी नहीं था। किससे बोलती? सुनने वाला कौन था? अपनों ने ही जब फरमान सुनाया तो लड़ती किससे? उन अपनों से लड़ने की हिम्मत कहां से लाती? किसी ने बताया ही नहीं था कि औरत का भी वजूद होता है। एक बेबस जानवर सी, उन अपनों का अहसान मानते हुए जिस खूंटे से बांध दे उससे बंधकर हलाल होने का इंतजार करना है।

पर आज जमीला के सामने जब खाला ने अपने शराबी मवाली बेटे सलीम के लिए उसकी बड़ी बेटी नूरजहां की शादी की बात की तो यकायक पन्द्रह साल पहले का मंजर उसकी आंखों के सामने आ गया जब उसका भी निकाह फूफी के कहने पर  दस साल की उम्र में कर दिया गया था।

अपने जैसा ही होने दे अपने लख्तेजिगर को या वो चीख पड़े कि नहीं मेरी नूर को किसी मवाली के रहम ओ करम पर नहीं छोड़ सकती।

इसी कशमकश में पता ही नहीं चला कि कब उसने नूर ही नहीं हर बेटी के लिए मां बनने का फैसला कर लिया।

नूर आज पंद्रह साल बाद अपनी जमात की पहली प्रशासनिक अफ़सर बनकर आ रही थी,अपनी मां से मिलने । जमीला की  यह विचार यात्रा को तब रुकी जब पड़ोसी जगदीशजी ने कहा बहन जी आपकी नूर दरवाजे पर आ गई है।

अपनी नूर से मिलने,धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए आगे बढ़ रही थी,खाबिंद और रिश्तेदारों की मार से उस वक्त आए पैरों के मल्टीपल फ्रैक्चर का दर्द आज भी पैरों में महसूस होता है पर नूर की फतह की रोशनी में दर्द काफूर हो गया।

।।शिव।।

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