रहस्य सोमनाथ मंदिर के दरवाजों का

 विधर्मियीं ने जब भी भारत पर हमले किए  उनके निशाने पर होते थे उस समय के संस्कार और अकूत संपदा से भरे हुए वे मंदिर जो समाज की संपत्ति हुआ करते थे। प्राचीन समय में ऐसे अनेक उदाहरण है जब राजा अपना सर्वस्व मंदिर को समर्पित कर देता था और जब राज्य को जरूरत होती थी तो उसी मंदिर से वापस मिल जाया करता था ।

मजहबी आक्रांताओं के लिए मंदिर केवल सोना चांदी लूट के लिए नहीं होते थे बल्कि इसलिए भी निशाने पर होते थे क्योंकि वे सनातन धर्म के आस्था केंद्र होते है। उनको बचाने के लिए भारत में लाखों हिंदुओं ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया है जिनमें 70 फीसदी से ज्यादा वो लोग हैं जो निहत्थे ही आक्रमण की सुन अपने आराध्य को बचाने के लिए दौड़ते पड़ते थे ।

12 ज्योतिर्लिंगों में से पहले स्थान पर माने जाने वाले सोमनाथ मंदिर की गाथा भी ऐसी ही है।

मुहम्मद गजनी ने जब सोमनाथ पर आक्रमण किया तो लूट ले गया था सारी धन संपदा,खंडित कर गया था ज्योतिलिंग,आहत कर गया था आस्था।

 पर एक सवाल आज भी ज़िंदा है कि सोमनाथ मंदिर के मूल चांदी जड़ित कलात्मक दरवाजे कहां हैं? महमूद तो उन्हें गज़नी ले गया था।

क्या भारत में फिर वापस लाने का साहस हुआ कभी? क्या भारत वापस ला पाया? अगर वापस लाए भी गए तो कौन लाया था उन्हें भारत वापस? लार्ड एलिनबरो, महाराजा रणजीत सिंह या मराठा सेनानी महादजी शिंदेगंगाधर ढोबले?

सोमनाथ पर कोई 17 बार अरबों के हमले हुए। गज़नी का महमूद 25 दिसंबर 1025 को सोमनाथ पहुंचा था। लड़ाई केवल दो दिन ही चली। मंदिर तबाह हो गया, परकोट ध्वस्त। शिवलिंग तोड़ दिया गया और कोई साढ़े छह टन सोना गज़नी की ओर भेजा गया। साथ में भेजे गए सोमनाथ मंदिर के प्रसिद्ध दरवाजे।

 रोमिला थापर, ईटन और एके मजूमदार जैसे वामपंथी इतिहासकार ऐसे दरवाजे के होने पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा करते करते हैं। वहीं, केएम मुंशी जैसे विचारक त्रेता युग से लेकर अब तक के इतिहास का हवाला देते हुए पुष्टि करते हैं ऐसे दरवाजों की। 

तो आज पड़ताल करते है वामपंथी इतिहासकार भारत के इतिहास से कर रहे है खिलवाड़ या राष्ट्रवादी इतिहासकार कर रहे है सच की खोज?

जब जब भी हम इतिहास की बात करते हैं तो लोग सबूत मांगते हैं वह भी लिखित सबूत मांगते हैं लिखित बच्चों के लिए हमें रुक करना होगा ब्रिटिश काल की ओर।

दस्तावेजी तथ्यों की ओर जाते है तो इन दरवाजों के तार 1839 से 1842 में हुए पहले काबुल युद्ध से जुड़े हैं। यह युद्ध एक तरह से रूसियों और ब्रिटिशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी। 

1839 में दोस्त महमूद खान ने शाह शूजा से बगावत कर उससे काबुल की गद्दी छीन ली। दोस्त महमूद रूसियों का प्यादा था, जबकि शाह शूजा ब्रिटिशों का। ब्रिटिशों ने काबुल पर हमला कर दोस्त मुहम्मद खान को हरा दिया, और शाह शूजा को फिर से गद्दी दिला दी। ब्रिटिशों का रूसियों को मात देने का सामरिक लक्ष्य पूरा हो चुका था, इसलिए शाह शूजा को उसके हाल पर छोड़कर सेना को वापस बुलाया गया।

यह युद्ध जब शुरू हुआ, तब भारत का लॉर्ड गवर्नर ऑकलैंड था और युद्ध का नेतृत्व कर रहा था मेजर जनरल एलफिंस्टन। 13 फरवरी 1842 को युद्ध समाप्त हुआ। लौटते समय ब्रिटिश फ़ौज का लगभग नरसंहार हुआ। यह आघात लॉर्ड ऑकलैंड सह नहीं पाया और उसकी अचानक मौत हो गई। इसके बाद 28 फरवरी 1842 को लॉर्ड एलिनबरो भारत का लॉर्ड गवर्नर बना। लौटती सेना की कमान सौंपी गई जॉर्ज पोलैक को। रॉबर्ट सेल के नेतृत्व में एक टुकड़ी को जलालाबाद से सीधे भारत लौटना था, जबकि विलियम नॉट के नेतृत्व वाली दूसरी टुकड़ी को काबुल से गज़नी जाकर वहां से सोमनाथ के चर्चित दरवाजे वापस लाने थे। यहीं एलिनबरो का सोमनाथ के दरवाजों से संबंध आता है, क्योंकि उसी ने यह हुक्म जारी किया था। जनरल नॉट ने हुक्म के अनुसार सितंबर 1842 में महमूद के मक़बरे में लगे दरवाजे उखाड़ लिए और छठवीं जाट लाइट इन्फैट्री रेजिमेंट इन्हें लेकर भारत की ओर निकल पड़ी। इन दरवाजों के कारण जाट रेजिमेंट को जानमाल की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। सैकड़ों फ़ौजियों को अफगानों ने घात लगाकर मार डाला। कई रास्ते में भूख और बीमारी से चल बसे। यह बेहद दर्दनाक कहानी है।

हालांकि, एलिनबरो ख़ुश था कि वह एक ‘नैशनल ट्रोफी’ वापस ला सका। इससे हिंदू प्रजा के जख्म पर मरहम लगेगा और हिंदू ब्रिटिश सत्ता के अधिक अनुकूल होंगे। यही नहीं, लंदन में उसका कद भी बढ़ेगा। उसने दरवाजों को एक विशेष सजे-धजे वाहन पर रखवाया। दरवाजों की इस रथयात्रा ने देशभर का सफर किया। जगह-जगह समारोह आयोजित किए गए। अंत में उन्हें सोमनाथ पहुंचाया गया। यहीं एलिनबरो का भाग्य गच्चा खा गया।

हुआ यह कि सोमनाथ के पुरोहितों ने इन दरवाजों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि यह सोमनाथ के असली दरवाजे नहीं हैं। मूल दरवाजे चांदी जड़ित चंदन की लकड़ी के थे। अंग्रेज जो दरवाजे लाए, वे चांदी जड़ित देवदार की लकड़ी से बने थे। यह देवदार की लकड़ी भी स्थानीय थी। उस पर जड़े चांदी के पतरों पर कारीगरी इजीप्शियन थी। एलिनबरो ने भी अपनी ओर से जांच करवाई। अंत में फैसला हुआ कि ये सोमनाथ के मूल दरवाजे नहीं हैं। आननफानन में इन्हें आगरा के क़िले में भिजवा दिया गए जो आज भी वहां रखे हुए बताए जाते है।


लिहाजा, इन दरवाजों से ब्रिटिशों को कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। इसलिए एलिनबरो के दरवाजे वापस लाने के फरमान पर ब्रिटिश संसद में जबरदस्त बहस छिड़ गई। साल 1843 में हाउस ऑफ कॉमन्स में इस विषय पर बहुत हंगामा हुआ। विपक्ष ने पूछा कि ये दरवाजे लाकर क्या एलिनबर्ग हिंदुओं का तुष्टीकरण करना चाहते थे या देश की सहानुभूति पाना चाहते थे? सरकारी पक्ष का जवाब था कि यह ‘नैशनल ट्रोफी’ है, न कि धार्मिक आइकॉन।  

हाउस ऑफ कॉमन्स की बहस के दौरान महाराजा रणजीत सिंह का भी नाम आया। विपक्ष का कहना था कि महाराजा ने ये दरवाजे लौटाने के लिए अफगानिस्तान के बादशाह शाह शूजा को पत्र लिखा था।  सोशल मीडिया पर बरसों से यह पोस्ट वायरल रही है कि महाराजा रणजीत सिंह ने गज़नी से सोमनाथ के असली दरवाजे हासिल किए। महाराजा ने बाद में इन्हें सोमनाथ को सौंपने की कोशिश की, लेकिन पुरोहितों ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया। बाद में ये दरवाजे स्वर्ण मंदिर को सौंप दिए गए, लेकिन इतिहास में इसका साक्ष्य नहीं मिलता।

उज्जैन के गोपाल जी मंदिर का द्वार,
जिसे सोमनाथ वाला माना जाता है
मराठा इतिहास में कुछ सबूत ज़रूर हैं। मराठा सरदार महादजी शिंदे ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली यानी शाह दुर्रानी के ख़िलाफ़ सिखों की सहायता की थी। महादजी ने दो बार अब्दाली को हराया और हिंदकुश के पार ढकेल दिया। 1782-83 के दौरान महादजी ने अब्दाली को हराकर लाहौर जीत लिया। इस बीच उन्हें पता चला कि सोमनाथ के मूल दरवाजे लाहौर की मस्जिद में लगे हैं। इन दरवाजों को महादजी ने उखड़वाया और लौटते समय अपने साथ ले आए। लेकिन सोमनाथ के पुजारियों ने यह कहकर दरवाजे लेने से इनकार कर दिया कि मस्जिद में लगने से ये अपवित्र हो चुके हैं। मायूस महादजी इन दरवाजों को अपनी राजधानी उज्जैन ले गए। महाकालेश्वर और गोपाल मंदिरों में इन्हें लगा दिया गया, जो आज भी मौजूद हैं। लेकिन इन दरवाजों के असली-नकली की परख होने का उल्लेख नहीं मिलता। इतना ज़रूर है कि एलिनबरो के लाए दरवाजों की तरह पुरोहितों ने महादजी के लाए दरवाजों को डुप्लीकेट नहीं कहा

महादजी मराठा सरदार राणोजी शिंदे और राजपूत मां चीमाबाई के अंतिम पुत्र थे। मराठा इतिहास में शिवाजी महाराज, संभाजी महाराज, राजा रघुजी भोसले के बाद महादजी शिंदे को ही महान सेनानी माना जाता है। 65 साल की उम्र में उन्होंने कोई 50 लड़ाइयां लड़ीं। अंग्रेज़ों, अरबों को धूल चटा दी। पूरा उत्तर-पश्चिम भारत और दिल्ली के बादशाह शाह आलम उनके इशारों पर नाचते थे।

इन चर्चाओं से एक बात साफ़ है कि दरवाजे भारत लाने के दो प्रयासों की पुष्टि विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों से होती है। महाराजा रणजीत सिंह वाली घटना के पक्के स्रोत उपलब्ध नहीं। इस संबंध में एक और तथ्य ध्यान में रखना चाहिए। महादजी ने जब लाहौर पर धावा बोला, तब महाराजा रणजीत सिंह की उम्र केवल दो-तीन साल की थी। सवाल है कि जब इस युद्ध के बाद महादजी ये दरवाजे लाहौर की मस्जिद से उखाड़कर लाए, तब रणजीत सिंह कौन से दरवाजे ले आए? एलिनबरो मक़बरे के दरवाजे लाया, महादजी मस्जिद के दरवाजे लाए, तो फिर रणजीत सिंह को लाने के लिए कौन से दरवाजे मिले? एक और बात गौर करने लायक है कि दरवाजे सोमनाथ पहुंचने की हर कहानी में पुरोहितों ने उनको लेने से इनकार क्यों किया? अहिल्याबाई होलकर जब सोमनाथ का पुनरुद्धार कर रही थीं, तब उन जैसी विदूषी राजनयिक ने पुरोहितों की बातों पर ही मुहर क्यों लगाई? दरवाजों को लेकर ऐसे बहुत से सवालों के जवाब अभी मिलने हैं। एलिनबरो के दरवाजे अब आगरा के म्यूजियम में रखे बताए जाते है, रणजीत सिंह के दरवाजे तो हैं ही नहीं। महादजी के दरवाजे उज्जैन में अब भी बरकरार हैं। इसमें और खोज हो तो कई और नए रहस्य खुल जाएंगे।

पर कुल मिलाकर कहा जाए तो एक बात स्पष्ट होती है कि वामपंथी इतिहासकार भारत के गौरव और समृद्ध इतिहास से पल्ला छुड़ाना चाहते है। उनका एजेंडा खुद का ही है जिसके पीछे पूरा इकोसिस्टम है।

जरूरत भारत को भारत के नजरिए से देखने की जब तक इंडिया के नजरिए से देखा जायेगा तो आखें तो हमारी ही होगी पर दृष्टि वो ही होगी जिन्होंने भारत को इंडिया नाम दिया।

मिलते फिर अगली बार एक नई यात्रा पर,तब तक के लिए जय शंकर की।

।।शिव।।

Comments

Manoj said…
जय शंकर की...

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