बेणेश्वर महादेव जहां भरता है आदिवासी कुंभ
आदिवासियों को सनातन से दूर करने के षड्यंत्रों को मुंहतोड़ जबाव देता बेणेश्वर महादेव धाम, जहां भरता है आदिवासी कुंभ।
सावन शुरू हो चुका है,सावन अर्थात् बाबा भोलेनाथ को समर्पित माह। इस वर्ष अधि मास के कारण दो महीने शिव भक्तों को मिलेंगे,अपने भोलेनाथ को रिझाने के लिए।
आइए,हम भी इस पावन मास में मानस यात्रा करते है भगवान आशुतोष के पावन धामों की।
राजस्थान के बांसवाड़ा से 45 किमी और डूंगरपुर से 68 किमी की दूरी पर स्थित बेणेश्वर धाम में विराजित है बाबा महाकाल।
सोम, माही व जाखम नदियों के पवित्र संगम पर स्थित लगभग 250 एकड़ में फैला टापू वाला यह पावन धाम गुजरात,राजस्थान और मध्य प्रदेश के वनवासी समाज को अपनी सनातन संस्कृति -धर्म से जोड़ता है।
यहां माघ पूर्णिमा पर जो मेला भरता है उसे आदिवासी कुंभ भी कहते है,यह राजस्थान के सबसे बड़े मेले में शामिल है।
तीनों नदियों के संगम पर स्थित इस स्थान पर डुबकी लगाने के पश्चात भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए बेणेश्वर मंदिर जाने की तमन्ना हर किसी की रहती है। बेणेश्वर के मंदिर परिसर में लगने वाला यह मेला भगवान शिव को समर्पित होता है।
मेले के दौरान बेणेश्वर महादेव का मंदिर सुबह पांच बजे से रात के 11 बजे तक खुला रहता है। सुबह के समय शिवलिंग को स्नान कराने के बाद केसर का भोग लगाया जाता है और उसके आगे अगरबत्ती से आरती की जाती है।
शाम को शिवलिंग पर ‘भभुत’ लगाई जाती है और महीन बाती वाला दीपक जलाकर आरती की जाती है। भक्त गेहूं का आटा, दाल, चावल, गुड़, घी, नमक, मिर्च, नारियल और नकदी चढ़ाते हैं।
सालभर एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, संक्रांतियों और कई पर्व व त्यौहारों पर बेणेश्वर के पवित्र संगम तीर्थ में स्नान का यह रिवाज कई सदियों से चला आ रहा है, लेकिन माघ माह में बेणेश्वर धाम की स्नान परंपरा का विशेष महत्व रहा है।
विशेष है शिवलिंग की कथा
मान्यता है कि प्राचीन समय में बेणेश्वर शिवलिंग पर एक गाय प्रतिदिन दूध चढ़ाती थी। घर में यह गाय दूध नहीं दे रही थी, जिससे ग्वाला परेशान था। ग्वाले ने यह जानने की कोशिश की कि आखिर गाय का दूध कौन ले जा रहा है? एक दिन ग्वाले ने गाय का पीछा किया तो उसने देखा कि गाय, शिवलिंग पर दूध चढ़ा रही है। गाय ने अचानक वहां ग्वाले को देखा तो वह जल्दी से वहां से जाने लगी। इसी दौरान गाय के पैर का खुर से शिवलिंग टकरा गया और खंडित हो गया।
परंतु आज भी उसी शिवलिंग की ही पूजा अर्चना सदियों से की जा रही है।
मान्यता
लोगों का मानना है कि बेणेश्वर त्रिवेणी संगम से जुड़ी नदी सोम यदि पहले पूर्ण प्रवाह के साथ बहे तो उस वर्ष चावल की फसल अच्छी होती है। वहीं माही में जल प्रवाह पहले होने पर समय ठीक नहीं माना जाता है।
आबूदर्रा जहां धन उधार मिलता था,बेणेश्वर धाम पर वाल्मीकि मन्दिर के पीछे नदी में चट्टानों से निर्मित टंकी नुमा स्थान है जिसमें पानी भरा रहता है। इसे आबूदर्रा के नाम से जाना जाता है। यहां एक धूणी भी है। इस स्थान के बारे में मान्यता है कि कुछ दशकों पहले यहां शाम के वक्त पहुंच कर याचना करने पर अगले दिन वांछित धन मिल जाता था। बाद में से इसे कहे हुए समय के अनुसार वापस लौटाने की परंपरा थी।
जब आबूदर्रा से उधार लिया शुद्ध घी
सन् 1958 में बड़लिया महाराज के नाम से मशहूर संत भोलानाथ ने बेणेश्वर धाम पर सुवृष्टि के लिए इन्द्र यज्ञ किया। इसका आचार्यत्व किया पं. भवानीशंकर भट्ट ने। तब हवन के लिए शुद्ध घी कम पड़ गया। ऎसे में बड़लिया महाराज ने आबूदर्रा संगम तीर्थ में से कई डिब्बे भर कर लाने को कहा। जब यज्ञ मण्डप में इन डिब्बों को देखा गया तो इनमें शुद्ध घी भरा था। यज्ञ पूर्ण हो जाने के बाद में शुद्ध घी मंगवा कर आबूदर्रा को वापस सौंपा गया।
हर दिन अलग भोग
बेणेश्वर महामेले के सभी दिनों में भगवान को अलग-अलग भोग लगता है. माघ शुक्ल पूर्णिमा को हलवा, माघ कृष्ण प्रतिपदा व द्वितीया को दाल-बाटी, तृतीया को हलवा-पूड़ी, चतुर्थी को दाल-रोटी, पंचमी को मोदक, दाल-बाटी आदि।
विशेष परंपरा
यहां के राधा-कृष्ण मन्दिर पर सोने-चांदी के वागे व 24 अवतारों के चित्रांकन युक्त चांदी के किवाड़ मेले से ठीक एक दिन पहले चतुर्दशी को वहां पहुंचते हैं व इनका उपयोग होता है। मान्यता और परंपरा के अनुसार मुख्य मेला में पूर्णिमा से पंचमी तक साबला के पुजारी वहां पूजा करते हैं, जबकि राधा-कृष्ण मन्दिर में आम दिनों में आदिवासी पुजारी ही होते हैं।
संत मावजी
बेणेश्वर में भगवान शिव के साथ साथ विष्णु जी का मंदिर भी हैं। इस मंदिर के बारे में कहा जाता हैं कि विष्णु जी के अवतार मावजी महाराज ने यहाँ कठोर तपस्या की थी। यहाँ मावजी का भी एक विशाल मंदिर बना हुआ हैं।
18 वीं सदी में साबला में संत मावजी का जन्म साबला डूंगरपुर में हुआ था। मावजी ने शिव मन्दिर में बैठकर ही तपस्या की तथा चौपडा लिखा था।
निष्कलंक भगवान के तौर पर पूजे जाने वाले बेणेश्वर धाम (त्रिवेणी संगम) के माव परंपरा के संस्थापक महंत मावजी महाराज की कलम से करीब 237 साल पहले की गई भविष्यवाणियां आज के युग में सही साबित हो रही हैँ।
उस जमाने में मावजी महाराज ने कागज पर लाक्षा (लाख) की स्याही और बांस की कलम से 72 लाख 66 हजार भविष्यवाणियों को हस्तलिपि में लिखा था। वागड़ी भाषा में लिखी गई यह हस्तलिपियां आज भी साबला (डूंगरपुर) स्थित मावजी के जन्म स्थान (वर्तमान में मंदिर) में सहज कर रखी गई हैं। हस्तलिपी वाले प्रमाणों के हिसाब से उस जमाने में, जब हैलीकॉप्टर, हवाई जहाज, बिजली, डामर सड़क और मोबाइल जैसे अविष्कारों का नामों निशान नहीं था।
जब उन्होंने चित्रों के माध्यम से ऐसी कल्पनाओं से भविष्य की तस्वीर को कागजों में उकेरा था। अब मावजी के इन्हीं चोपड़ों (हस्तलिखित दस्तावेज) को डिजिलाइजेशन भी हो रहा है। माव कृतियां चोपड़ों तक ही सीमित नहीं हैं।
मावजी महाराज की हस्तलिपी में ज्ञान भंडार, अकल रमण, सुरानंद, भजनावली, भवन स्त्रोत, ज्ञानरल माला, कलंगा हरण और न्याव जैसे कृतियां भी शामिल हैं। कहते हैं अक्षरज्ञान के भरोसे यह सब लिखा था। भविष्यवाणियों को लेकर कई शोध भी हो रहे हैं। भविष्य वक्ता के तौर पर उनके 1784 में साधना में लीन होने के प्रमाण भी वागड़ के प्रयागराज में हैं।
मावजी महाराज ने सोमसागर, प्रेमसागर, मेघसागर, रत्नसागर एवं अंनतसागर इन पांच पुस्तकों की भी रचना की थी।
निर्माण इतिहास
डूंगरपुर के महारावल आसकरण जी ने 1500 ई के आसपास शिव मंदिर का निर्माण करवाया था।
।।शिव।।
सनातन है चिर पुरातन, नित नूतन
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Comments
हर हर महादेव
आप सभी का आभार