फिर बेनकाब हुआ छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा
फिर बेनकाब हुआ छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा
साभार #हिंदुस्तान
बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन के दौरान ही हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर हमले शुरू हो गए थे। जैसे ही 5 अगस्त को शेख हसीना ने ढाका छोड़ा, उन पर हमलों का सिलसिला और तेज हो गया। उनके घरों, दुकानों और पूजा स्थलों को भी निशाना बनाया जाने लगा। यह सिलसिला वहां अंतरिम सरकार स्थापित होने के बाद भी कायम रहा। चूंकि खुद पुलिसकर्मियों और वाहनों पर हमले हो रहे थे, इसलिए हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों की सुध लेने बाला कोई नहीं था। बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद कुछ दिनों तक वहाँ हिंदुओं पर हमलों को लेकर चिंता जताने का काम केवल भाजपा, आरएसएस और अन्य हिंदू संगठनों के नेता ही कर रहे थे। हालांकि 6 अगस्त को ही विदेश मंत्री जयशंकर सर्वदलीय बैठक और संसद में यह बता चुके थे कि बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं, लेकिन विपक्ष के किसी नेता ने इस पर चिंता जताने की जहमत नहीं उठाई। जब अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में मुहम्मद यूनुस ने सता की बागडोर संभाल ली और खुद उन्होंने अल्पसंख्यकों की रक्षा करने की अपील की, तब भारत में कुछ विपक्षी नेताओं को यह लगा कि अब उन्हें भी बांगलादेश के अल्पसंख्यकों पर कुछ बोलना चाहिए। उनके सामने तब और कोई चारा नहीं रह गया, जब खुद बांग्लादेश के हिंदू खुद को बचाने की गुहार लगाते हुए सड़कों पर उतर आए और इसी के साथ दुनिया के कई देशों में उन्हें बचाने की मांग को लेकर प्रदर्शन हुए। इस तरह करीब एक सप्ताह की चुप्पी के बाद कई विपक्षी नेताओं को बांग्लादेशी हिंदुओं को लेकर जुबान खुली। क्यों, क्योंकि तथाकथित सेक्युलरिज्म इसकी इजाजत नहीं दे रहा था कि वे उन पर कुछ बोलें। यह पहली बार नहीं हुआ।
साभार #जागरण
अफगानिस्तान हिंदुओं एवं सिखों से करीब करीब खाली हो गया और उन्हें जैसे-तैसे निकालकर लाया गया, लेकिन शायद ही कभी कोई आवाज उठी हो कि तालिबान शासन में बचे-खुचे हिंदू-सिखों को बचाने की जरूरत है। पाकिस्तान में आए दिन हिंदुओं, सिखों का उत्पीड़न और खासकर उनकी लड़कियों का अपहरण एवं जबरन निकाह होता रहता है, लेकिन मजाल है कि खुद को सेक्युलर बताने वाले दल इसके खिलाफ आवाज उठाए। कारण वही कि छद्म सेक्युलरिज्म इसको इजाजत नहीं देता। यह भी ध्यान रखें कि जब अयोध्या से गुजरात जा रहे करीब साठ कारसेवकों को गोधरा में ट्रेन में जिंदा जला दिया गया था तो विपक्षी नेताओं के मुख से निंदा के दो शब्द नहीं निकले थे और उलटे यह साबित करने की कोशिश की गई थी कि ट्रेन में आग बाहर से नहीं, अंदर से लगी। गोधरा कांड पर विपक्षी दलों की चुप्पी ने भी गुजरात दंगों की आग में घी डालने का काम किया था। यह भी किसे से छिपा नहीं कि कश्मीरी हिंदुओं के पक्ष में कभी कोई आवाज नहीं उठती। उनके पलायन के इतने वर्षों बाद भी यह सवाल नहीं उठता कि आखिर कश्मीरी हिंदू अपने घर कब लौट सकेंगे? यदा-कद इस तरह का नैरेटिव गढ़ने की कोशिश अवश्य की जाती है कि कश्मीरी हिंदू अपने पलायन के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं।
सेक्युलरिज्म के विकृत रूप लेने के कारण ही देश में अपने-अपने एजेंडे के हिसाब से पीड़ितों के पक्ष में बोला जाता है। इसका उदाहरण यह है कि जो लोग गाजा में मुसलमानों के संकट पर बोलना जरूरी समझते हैं, वे बांग्लादेशी हिंदुओ के पक्ष में आवाज उठाने को गैर जरूरी मानते हैं।
जब बांगलादेश में हिंदुओं पर हमले हो रहे थे, तब देश में यह भी ही रहा था कि इंटरनेट मीडिया पर इन हमलों की नकारने और साथ ही यह बताने की पूरी कोशिश हो रही थी कि वे वहां पर पूरी तरह सुरक्षित हैं। इसके लिए 'एक्मा' की कुछ उन फर्जी पोस्ट का सहारा लिया जा रहा था, जिनमें यह कहा जा रहा था कि वह खुद बांग्लादेशे हिंदू हैं और पूरी तरह सुरक्षित हैं। इसके अतिरिका उन चंद फोटो का भी हवाला दिया जा रहा था, जिनमें बांग्लादेश के मुस्लिम मंदिरों की सुरक्षा करते दिख रहे थे।
दुनिया में जब कहीं बड़े पैमाने पर हिंसा होती है तो कुछ फेक फोटो और वीडियो भी आ जाते हैं। ऐसा ही बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले को लेकर भी हुआ। इन्हें ढाल बनाकर यह माहौल बनाने की हरसंभव कोशिश हुई कि हिंदुओं पर हमले की सारी खबरें झूठी हैं। यह काम तथाकथित फैक्ट चेकर भी कर रहे थे। उनकी ओर से बनाया जा रहा फर्जी नरेटिव तब ध्वस्त ही गया, जब अंतरिम सरकार के प्रमुख मुहम्मद यूनुस हिंदुओं पर हमले के खिलाफ बोले और बांग्लादेशी हिंदू भारत में शरण के इरादे से बंगाल की सीमा पर एकत्रित होने शुरू हो गए। यह शरारत भरा नैरेटिव बांग्लादेशी हिंदुओं के सड़कों पर उतरने से तो पूरी तरह ध्वस्त हो गया। इसके बाद भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंदुओं पर हमले की इक्का- दुक्का घटनाएं हुई हैं और इन घटनाओं के पीछे कोई सांप्रदायिक वैमनस्य नहीं है। जो लोग बांग्लादेशी हिंदुओं पर कुछ बोलने को तैयार नहीं थे या फिर यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे थे कि उनके खिलाफ कुछ नहीं हो रहा, वे यकायक तब मुखर हो गए, जब गाजियाबाद में गुमनाम से हिंदू संगठन के कुछ युवाओं ने बांग्लादेशी मुसलमानों के नाम पर कुछ गरीबों को झुग्गियां तोड़ दीं। यह खबर उन अंतरराष्ट्रीय मीडिया माध्यमों ने भी उठा ली, जो बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की अनदेखी करने में लगे हुए थे। यह अफसोस की बात है कि हमारे राजनीतिक दल बांग्लादेशी हिंदुओं के पक्ष में न तो कोई साझा बयान जारी कर सके और न ही एक सुर में बोल सके।
यह धर्मनिरपेक्षता के उस झूठे नकाब को नौच कर हटा देने के लिए पर्याप्त है।
।।शिव शंकर शर्मा।।
स्वतंत्र पत्रकार और लेखक
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