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Showing posts from June, 2021

सुखद बदलाव

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 स्वाति बाथरूम में कपड़े धो रही थी। सास ससुर और शशांक डाइनिंग हॉल में बैठे थे । तभी अचानक प्रशांत की आवाज आई "चाय ले लो! चाय गरमा गरम चाय।" प्रशांत की आवाज सुनकर स्वाति चोंक गई, शादी के सात साल में आज पहली बार प्रशांत ने चाय बनाई है। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।  उसे चाय लाता देखकर सास बोली "अरे! तूने चाय बनाई है,आजकल की बहुएं भी पता नहीं घर पर क्या सीख कर आती है या नहीं । लाज शर्म सब छोड़ दी आजकल की बहुओं ने... तुझसे नहीं बन रही थी तो मुझे कह देती, बीनणी.... मैं ही बना देती.... पूछ अपने ससुरजी को शादी को 40 साल हो गए मजाल है एक दिन भी इनको अपने हाथ से पानी लेकर पीने दिया हो..." पता नहीं सासु जी क्या क्या बोलती रही । प्रशांत ने बात बदलने के मतलब से फिर कहा " माँ-पापा! चाय पी कर बताओ कैसी बनी है एक घूंट में ताज़गी आ जायें.. फिर कुछ बोलो ..." अरे स्वाति! सुन चाय पी ले...कपड़े बाद में धो लेना नहीं, तो चाय ठंडी हो जाएगी।"  प्रशांत आज अलग ही मूड में था। "कोई हमारे हाथ की चाय पीकर भी तो बताएं आखिर हम कैसी बनाते हैं।"  स्वाति को सुनकर अच्छा लग रह...

भरोसे की सिसकी...

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 सड़क के एक छोर से दूसरी ओर दौड़ कर आ रही थी चार बच्चियां । कंधे पर बस्ता औऱ हाथ में लटकती पानी की बोतल लिए दौड़ रही थी।  मैं जहां खड़ा था उससे चंद कदम की दूरी पर जेब्रा लाइन थी वे उसी जेब्रा लाइन को क्रॉस करती हुई मेरी तरफ बढ़ रही थी।  मैं एक दोस्त से मिलकर निकलने वाला था पर उन बच्चियों को दौड़ते हुए देख कर रुक गया अनायास ही। आंखों में उम्मीदें थी तो चेहरे पर कुछ उलझन सी भी दिखाई दे रही थी..... आगे चल रही बच्ची ने पीछे चल रही बच्ची को कहा "चलती चल लेट हो जाएंगे". ...तो सबसे पीछे वाली ने तेज आवाज में कहा "अब नहीं दौड़ सकती चाह कर भी हम समय पर नहीं पहुंचेंगे तो फिर आराम से चल लो ना...." पर आगे वाली जैसे अपने ही जुनून में थी।  बीच वाली ने हौसला बढ़ाया कि "हम पहुंच जाएंगे समय पर, थोड़े कदम तेज चला लो .... उनकी ड्रेस देखकर समझ आया कि यह तो मेरे घर के पास वाली स्कूल की बच्चियां है,जिस स्कूल को मैं आज से जॉइन करने वाला हूं बतौर शिक्षक।  अचानक मुझे उन बच्चियों में अपनी गुड्डा नजर आने लगी और जब मेरे पास आई तो मैंने कहा गुड्डा मैं भी उधर जा रहा हूं गाड़ी में बैठ जाओ छो...

वो माँ जो है...

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 चारों बहुऐं अपने-अपने कमरे में सोने जा चुकी,बाबू जी भी निंद्रा रानी का वरण कर चुके...तीन आवाज़ ही उस शांति को तोड़ रही थी। पहली कभी कभार सड़क से गुजरते वाहनों की आवाज़ जो रात के सन्नाटे में तेज होती है और सड़क किनारे वाले घरों के लिए तो आफ़त भी। दूसरी कोठी में लगाये पिताजी के पेड़ पौधों में बसे झींगुरों की। औऱ तीसरी बर्तनों की आवाज़ देर रात तक आ रही थी…रसोई का नल चल रहा है,माँ रसोई में है…. सबका काम हो गया हो भले ही पर माँ का काम बकाया रह गया था। काम तो सबका था पर माँ तो अब भी सबका काम अपना ही मानती है। दूध को गर्म करके फिर ठण्ड़ा करना उसके बाद जावण देना है…ताकि सुबह बेटों को ताजा दही मिल सके। रात भर सिंक में रखे बर्तन माँ को कचोटते हैं,चाहे तारीख बदल जाये, सिंक साफ होना चाहिये। उधर माँ रसोई में है पर दूसरी ओर बर्तनों की आवाज़ से बहू-बेटों की नींद खराब हो रही है। बड़ी बहू ने बड़े बेटे से कहा “ तुम्हारी माँ को नींद नहीं आती क्या? ना खुद सोती है और ना ही हमें सोने देती है” दूसरी वाली अपने पति से वीडियो कॉल करते हुए शिकायत कर रही थी  ” अब देखना सुबह चार बजे फिर खटर-पटर चालू हो जायेगी, ...

मोक्ष

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 बबिता अपनी दोनो बेटियों के साथ खेल रही थी। तभी पड़ोस वाली आंटी आई और कुटिल मुस्कान के साथ बोली- “क्या बात है बबिता खूब मस्ती हो रही है बेटियों के साथ?” बबिता ने कुर्सी देकर उन्हें बैठने को कहा औऱ उनके चरण स्पर्श किये। “अब फटाफट एक बेटा भी हो जाये ताकि परिवार पूरा हो जाए।” आंटी आशीर्वाद देते हुए बोली। “हमारे लिए तो ये दो बेटियां ही काफी हैं आंटी, हमारा तो परिवार पूरा हो गया । आप क्या लेंगी चाय या कुछ ठंडा?” बबिता ने बात का रुख बदला। “तुम भी कैसी नासमझी वाली बात करती हो! धरम शास्त्रों में लिखा है, बेटे के हाथ पिंडदान न हो तो मोक्ष नही मिलता। बेटा आग देगा तभी मुक्ति मिलेगी।” “अच्छा तो आंटी एक बात बताओ जिनके औलाद नहीं होती उनको तो फिर मरना भी नहीं चाहिए। आपने चिता जलने के बाद की दुनिया देख ली है आंटीजी?  बबिता के चेहरे पर अब भी सहज मुस्कान थी पर आंटी का चेहरा सफ़ेद पड़ रहा था। “अरे तुझे मालूम नहीं, पूर्वजों का कर्ज रहता है पुत्र पर उसे दुनिया में लाने का। जब तक पुत्र किरिया करम नही करता ,तब तक मोक्ष नही मिलता....” आंटी की आवाज कुछ तेज़ हो गयी थी। “तो क्या पुत्री पर ऋण नही होता? वो भी...

अ धर्म

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 सर,आपका हुकुम मिलते ही पंडित को उठा लाये,औऱ टीवी वालों को बता भी दिया कि आपने धार्मिक उन्माद फैलाने वाले को पकड़ लिया है,वे आते ही होंगे आपका इंटरव्यू लेने। हेड कॉन्स्टेबल ने सर्किल इंचार्ज को बड़े ही अदब से कहा तो साहब के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। हेड कॉन्स्टेबल ने इधर उधर देखकर साहब से कहा- सर गुस्ताखी माफ़ हो पर ये पंडित क्या उन्माद फैलायेगा..? जिसको दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती। कोई दया कर दे देता है तो खा लेता है... कहते कहते वो अपनी चौकस निगाहों से इधर उधर भी देख रहा था और शब्दों को भी तौल रहा था,कहीं साहब की शान में गुस्ताखीं ना हो जाये। साहब ने अपने सिर को झटका देते हुए कहा- जानता हूँ रामद्दीन! चींटी को आटा और पक्षियों को दाना देने की सीख देने वाला क्या खून खराबे के लिए उकसायेगा..... पर हुकुम है,हुकुम। राजनीति का खेल है,जिसमें खिलाड़ी खेलता है,तुम हो,चाहें मैं, औऱ चाहें पंडित...दांव पर लगा है तो ...कहते कहते साहब ने बात बदली। मैंने तुझे दिया तो तूने मेरा हुकुम माना,बिना किसी सवाल के वैसे ही मुझे भी हुकुम है तो मानना पड़ता है बिना किसी सवाल के..... अपना भी तो होता है,क्या ब...

रिश्तों की बारहखड़ी

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 निखिल स्कूल से घर पहुंचा तो फ्लेट के गेट पर ही बहुत सारी आवाज़ें सुन चोंक गया। दरवाजे पर चार जोड़ी अजनबी जूते चप्पल देखकर एक बार फिर फ्लेट नम्बर पर नजर डाली...202 सही ही तो है,नम्बर भी औऱ नेमप्लेट भी "गीत गोविन्दम" डोरबेल बजाई तो माँ जाह्नवी ने दरवाजा खोला। वो कुछ बोलता उससे पहले एक बुजुर्ग महिला जो हॉल में बैठी थी चहकती हुई बोली आ गया मेरा पोता,आ लाला आ जा मेरे पास.... पास बैठी एक सुंदर सी माँ से थोड़ी बड़ी उम्र की महिला ने कहा-मेरा तो नाणदा है,ये तो अपनी मामी के पास ही आएगा.....उनकी बात को काटते हुए एक व्यक्ति ने कहा छोटा-सा तब देखा था,ये तो क्या जानता होगा कि मैं भी इसका फूफाजी हूँ? मेरी नजरें आश्चर्य से फैल रही थी तभी पापा के पास बैठे एक बुजुर्ग व्यक्ति ने पापा को देखते हुए कहा-अरे शिव! ये तो बड़ा भी हो गया और सुंदर भी लग रहा है। पापा ने कहा हां चाचाजी!इस बरस 10वीं में हो गया है निखिल। माँ  हाथ थामे निखिल को आगे ले जा रही थी और वे सब उसे स्नेह से देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। निखिल के समझ में कुछ नहीं आ रहा था, कि वे कौन है..? उसकी सोच को भंग किया बुजुर्ग महिला के स्नेह से भरे पर ...

पापा की शर्त

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 शालिनी पीहर आई हुई थी,शाम को माँ-बेटी बैठे थे अपने कमरे में तो माँ ने अपनी अलमारी से सोने की चूड़ियां निकाल कर दिखाते हुए कहा-शालू, देख ये चूड़ियां जाह्नवी लेकर आई थी मेरे लिए। शालिनी ने चूड़ियां हाथ में लेकर देखते हुए कहा -हाँ, भई!लेकर तो आएगी ही महारानी जो ठहरी..पति कमा रहा है और वो उड़ा रही है।कभी हमें भी पूछ लिया करो कुछ करने से पहले... माँ कुछ बोलने लगी तो शालिनी ने कहा-आप तो रहने ही दो,आप तो मोम की गुड़िया हो उसके सामने.... अभी वह बोल ही रही थी कि जाह्नवी ने कमरे में आते हुए कहा-मम्मी मैं शिवांश के साथ पापा से मिलकर आती हूँ। माँ ने कहा-हाँ!बेटा आराम से जाना,मेरी ओर से भी समधी जी को कुशल क्षेम पूछना। जाह्नवी अपनी सास को प्रणाम कर बाहर निकल गयी तो अब तक चुप रही शालिनी का बम फिर फट पड़ा.... देखा,कैसे सूट पहनकर जा रही है कोई लिहाज़ भी नहीं है...अभी लिपट कर बैठेगी बाइक पर....कार से भी जा सकती है पर जाएगी बाइक पर....बेशर्मी की भी हद है...वो बोलते जा रही थी और मां सुन रही थी.... पता ही नहीं चला कब शालू के पापा कमरे में आ गए। बोले- क्या हुआ शालू,यह क्या है....पति पत्नी कैसे रहे,यह भी क्या ...

मित्र धर्म

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 निरंजन घर पहुंचा तो पत्नी ने कहा आज तुम्हारे मित्र शेखऱ घर आये थे उन्हें दस हजार रुपये की जरूरत थी,मैंने आपकी अलमारी से दस हजार रुपये उन्हें दे दिए है। तुम्हें कहीं लिखना हो तो लिख लेना। निरंजन सोच में डूब गया...उसे इस प्रकार देखकर पत्नी ने कहा-क्या कोई गलती हो गयी..? तुम ही तो कहते हो शेखर भरोसे वाले इंसान है.…..इसलिए उनके सामने तुम्हें नहीं पूछा, उन्हें बुरा ना लगे इसलिए। मैंने तुमसे बिना पूछे रुपये दे दिये,सॉरी यार मैनें तो तुम्हारी पहले कही बातों को ही ध्यान में रखकर दे दिए। मुझे नहीं पता था कि वो अब बदल गए..... निरंजन ने कहा-नहीं यार तुमने कोई गलती नहीं की, तुमने बहुत अच्छा किया.....मुझे अच्छा लगा कि तुमने उसके आने पर उसकी मदद की....मुझे भी नहीं पूछकर उसे रुपये दे दिए यह भी अच्छी बात है। मैं तो दुःखी इस बात से हूं कि उसे पैसे की जरूरत थी औऱ मुझे पता ही नहीं चला.... उसे आज मांगने पड़े,इसका मतलब यह कि हमारी बात आजकल होती ही नहीं.....हम दोस्त की जरूरत खुद नहीं समझ सके तो फिर दोस्त कैसे...? दोस्ती तो साइलेंट बेल है जिसे बिना बजे समझना होता है,उसे मांगने की जरूरत हुई यह तो बड़ी बात ...

जीवट वाला जीवन

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 अरे,यह क्या लगाया है संगीता दी?' 'यह कोई नयी बेल लाये हो क्या? पहले तो नहीं थी...स्नेहा अपनी आदत के अनुसार सवालों कि बौछार कर रही थी। सवालों का एक जबाब देते हुए संगीता ने कहा-"लगाई नहीं अपने आप ही उग आई।" क्या कह रही हो दीदी!अपने आप उग आयी है और देखो कितनी जल्दी-जल्दी बढ़ रही है।' 'अरे, वह तो जंगली है। उखाड़ फेंको उसे।'  स्नेहा के सवालों के बीच अपनी हंसी को रोक चेहरे पर झुंझलाहट लाकर संगीता ने कहा-'बिना देख भाल के इतनी तेजी से बढ़ रही है। यह भी तो हरियाली ही फैला रही है और यह भूलकर कि ये अपने आप उग आई है इसके पत्ते देख कितने सुंदर है,कटावदार। बिना देख भाल के पल रही है, बढ़ रही है तो जंगली हो गई? यह तो तुझे बता दिया कि अपने आप उग आई नहीं तो तू लड़ रही होती कि नर्सरी से मेरे लिए भी ले आते या मुझे ही कह देते नर्सरी जाते हुए मैं भी ले आती। क्यों स्नेहा सही कहा ना?' तभी उनका ध्यान गया सामने वाले गार्डन से आती मस्ती भरे हंसी, ठहाकों की आवाज़ कीओर। थोड़ी देर पहले हुई जोरदार बारिश औऱ अब हो रही बूंदाबांदी में पीछे की बस्ती के बड़े छोटे बच्चे, उछल-उछल कर नहा रहे थे...

अच्छा पड़ोसी

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 कोई तो है यार वर्माजी जो रोजाना मुझे छेड़ता है, मैं रोज यह गिलोय की बेल चौधरी साहब के मनी प्लांट के लिए बंधी रस्सी के सहारे चढ़ाता हूँ और कोई  उतार जाता है.. ..यह कहते कहते भी चंद्रभान सिंह दीवार की रेलिंग को लांघ कर इधर उधर देख रहे थे,जैसा उसको पकड़ने के लिए जतन कर रहे हो। उधर चौधरी साहब भी अपने बगीचे में ही थे। बोले यार सिंह बड़े मुश्किल से लगा है मनी प्लांट...किसी ने कहा था कि इसे लगाने से पैसा आता है इसलिए इसे रस्सी के सहारे चढ़ाने की कोशिश कर रहा हूँ और ये तुम्हारी गिलोय की तरफ लटक जाती है... सिंह साहब ने भी कहा सही कह रहे हो तुम भी चौधरी...गिलोय भी उधर ही जा रही थी इसलिए उसी रस्सी के सहारे मैंने अटकाने की कोशिश की थी। पास खड़े शर्मा जो वर्माजी से बात करते हुए सुन रहे थे बोले- किसे अच्छे पड़ोसी का साथ नहीं भाता..गिलोय और मनी प्लांट को साथ बढ़ने दो....यह भी तो सोचो...स्वास्थ्य भी तो सम्पति है......चौधरी जी ने सिंह साहब से कहा-ला भाई पकड़ा तेरी गिलोय,अब रस्सी के सहारे दोनों साथ बढ़ेगी.... शर्माजी,वर्माजी,सिंह साहब औऱ चौधरी जी की  मुस्कान अब संयुक्त हंसी में बदल गयी थी... मानों ...

दहेज

 एक मल्टीनेशनल कम्पनी में इंजीनियर था प्रियांश। आयशा उसके साथ ही काम करती थी, दोनों एक दूसरे को पसन्द करते थे परन्तु डरते थे कि कहीं दोनों के माता-पिता धार्मिक भेद के कारण मना न कर दें। दोनों ने अपने अपने घर पर बात की प्रियांश के माता-पिता  शिक्षक थे उन्हें विवाह को लेकर कोई आपत्ति नहीं थी। उधर आयशा ने घर पर बात की तो पापा तो तैयार हो गए पर अम्मी ने ऐतराज जताया,कुछ परिवार जनों ने भी पर अब्बू ने समझाकर अपना फैसला सुना दिया- कहते लख्त ए जिगर है और उसके ही दिल की नहीं सुनेंगे तो फिर कैसी अपनी जिगर.....आखिरकार अपने अपने घरों में रजामंदी तो कर ली परन्तु दोनों की शर्त थी कि पहले दोनों परिवार आपस में मिलेंगे तभी अन्तिम निर्णय होगा। प्रियांश के घर आयशा अपने अब्बू- अम्मी के साथ आयी। दोनों परिवार आपस में मिलकर खुश थे। सब कुछ ठीक था तभी आयशा की अम्मी बोली- 'बहन जी! बच्चों की खुशी में हमारी खुशी। हमारे यहां तो मेहर की रस्म होती है पर आपके यहाँ तो दहेज दिया जाता है  ना, आपकी कोई मांग तो नहीं।' ' मांग है बहन जी, दो मांगे हैं। अगर पूरी कर सके तो ही यह विवाह होगा।' आयशा की अम्मी अब्बू ...

विरासत

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 काव्य और कृति हमारे पुश्तैनी गांव जाने के लिए पिछले एक सप्ताह से बहुत उत्साहित थे। दोनों ही सफ़र के लिए अपने छोटे छोटे बैगों में अपने लिए चिप्स, चॉकलेटस और न जाने क्या-क्या इक्कठा कर रहे थे। ज्योत्सना सुबह से ही किचन में सफ़र का खाना तैयार करने में जुटी थी और मैं.... समझ से परे उत्साहहीन सा इधर उधर टहल कर घड़ी की सुइयों को आगे बढ़ने की ताकीद कर रहा था। उन सब में उत्साह था, ज्योत्सना के लिए वह हवेली उसका पहला घर थी तो बच्चों के लिए सबसे अच्छा स्थान जहाँ जाकर वे खुश होते थे। पर मेरा मन तो चोर की तरह धड़क रहा था,कुछ कहना चाहता था,पर ज़ुबान उन बच्चों की मासूमियत और ज्योत्सना के उत्साह को देख काठ की बन जाती। ज़ुबान से निकल ही नहीं रहा था कि  गांव वे आखरी बार जा रहे है।  राजस्थान के घोरों के बीच बसा एक छोटा सा गांव था हमारा सुजानगढ़। बरसात आती तो गांव के बाहर बसा तालाब भर जाता और रेगिस्तान में  जन्नत का अहसास करवा देता। गर्मी में लू के थपेड़ों के बीच भी तालाब पर बने हनुमान जी के मंदिर में लगे सैकड़ों पेड़ो से होकर आती हवा सुकून देती। छोटे छोटे मोखों  से आती हवा जब मंदिर की घण...

कुर्बानी

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मजारों,फकीरों की चौखटों पर की गई मन्नतों और डॉक्टरों के पुरज़ोर इलाज ने अपना रंग दिखाया और सलीम की बेटी ने एक बार फिर से जीवन के रंगो को जीना शुरू कर किया। मन्नते,दुआएं कबूल हुई तो उनकी चौखट पर जो बोला था उसे पूरा करने की जद्दोजहद में लग गया सलीम। केवल सलीम ही नहीं फरजाना भी और सलीम के वालिद जनाब अरशद अली भी। जनाब अरशद अली की गिनती दीनी तालीम के बड़े उस्ताद के रूप में होती थी,बड़े बड़े जलसों में वे तकरीरें पेश करते थे। कभी अनाज को उसका सदक़ा उतार कर ग़रीबों में बाँटा जाता ।मस्जिद-मजार पर फिर चौखट चूमी जाती,वे सब वो करते जो उन्होंने दुआओं में अपनी बच्ची के लिये कहा था। नन्हीं सी जमीला उसे देख कर फख्र से अपने वालिद और अम्मा को चूम लेती। पर आज वह दुःखी थी। उसके जीवन को बचाने के लिये उसके अब्बू ने बकरे की क़ुर्बानी की दुआ माँगी थी । ट्रक में लद कर आये बकरे की मासूमियत को देख उसने अपने अब्बू से कहा। “अब्बू!क्या ये ज़रूरी है?” “हाँ, बेटी! आपकी सलामती के लिये ऊपर वाले से किया ये वादा निभाना ज़रूरी है।” “ पर अब्बू! स्कूल में तो सर कहते है कि पेड़ पौधों में भी हमारी तरह प्राण होते है....यह तो फिर ए...

माँ की पसन्द

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 शालिनी की तबियत थोड़ी नासाज थी। माँ से फोन पर बात कर रही थी तो वो कह रही थी,कुछ भी करने की हिम्मत नहीं, खिचड़ी बनाऊंगी। वैसे भी बहुत दिन हो गए और तुम्हे तो पता है मुझे पसन्द भी है। वो किचन की तरफ गई थी कि बडी बेटी मनस्विनी ने पूछा  ‘‘मां,मेरी पसंद का आज क्या बनेगा ?’’ शालिनी जी ने उल्टा उसे ही पूछ लिया तुम ही बता दो। ‘‘ मेरी पसंद का तो वेज सैंडविच बना दो ।’’ मनस्विनी ने कहा। मनस्विनी की पसन्द का सैंडविच बना ही था कि नवोन्मेष ने कहा, ‘‘मां, मेरे लिए तो आलू के पराठे बना देना  ।" अब वे जूट गई थी परांठा बनाने कि पति सोमेश बोले यार! बहुत दिन हो गए चाउमीन खाये... .क्यों ना वही हो जाये। शालिनी जी  फिर किचन में जुट गई और वेज सैंडविच,आलू के परांठे के बाद चाउमीन बनाने के लिए।  तीनों एक साथ मिलकर डायनिंग टेबल पर अपनी-अपनी पसंद की चीजें खाने लगे।  बेटे नवोन्मेष ने मां से पूछा, ‘‘मां, तुमने अपनी पसंद का क्या बनाया ?’’ मां ने भी अपनी थाली तैयार की तो तीनों ने देखा उसमें  थोड़े थोड़े तीनों ही आइटम रखे हुए थे। अब मनस्विनी बोली , ‘‘मां, ये तो हमारी पसंद की चीजें हैं।’’ मा...

घर की लक्ष्मी

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 दीपा के दिन  सास के ताने से शुरू होकर,ससुर के उलाहनों से होता हुआ पति के थप्पड़-मुक्कों पर समाप्त होता था। उसके सास-ससुर,पति बात-बात पर ताने मारते। उसका पति तो उसे अधिक दहेज न लाने के कारण रोज तानों के साथ-साथ थप्पड़-मुक्के भी मारने लगा।  ये सब अब रोजाना होना दीपा की नियति बन गया था। हर दिन होती दरिंदगी को सहते-सहते दीपा के आंसू सूख चुके थे...रोना तो दूर अब उसने सिसकना भी छोड़ दिया था।  एक दिन दीपा का पति उसे पीट रहा था,क्योंकि वो चाहता था कि दीपा अपने मायके से एक लाख रुपये लेकर आये ।  उसकी सास ने उसके गुस्से को भड़काते हुए कहा- तुझे ही कुछ नहीं समझती हमें क्या समझेगी...थोड़ी मर्दानगी दिखा तो यह तेरे बस में रहे। देख कितनी ढीठ हो रही है मार खाकर भी हां नहीं कह रही। तू मार रहा है या ड्रामा कर रहा है। वहीं ससुर  कह रहा था, ' इस  करमजली को तब तक पीटते रहो, जब तक ये रुपये लाने के लिये हां न कह दे ।'  तभी दीपा की ननद  नीतू वहां आ गयी और ये दरिंदगी देखकर बोली, ' भैया, भाभी ने ऐसा क्या कर दिया जो तुम इसे जानवरों की तरह पीट रहे हो?'   मुकेश दीपा...

मकड़ी के जाले सी

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 वह टकटकी लगाये....हॉल के एक कोने में लगे जाले को देख रही थीं। उसकी नजरों ने तभी देखा  एक कीट उस जाले की ओर बढ़ रहा था। "क्या हुआ,आज यही बैठी रहोगी क्या.....? देखो घड़ी की ओर,स्कूल नहीं जाना क्या...? मनीषा को जब पति  मुकेश ने टोका तो मानों वो सोते से जगी। 'यार,मेरा मन करता है कि यह नौकरी छोड़ दूँ। काम कर-कर के अब थक गई हूँ। शरीर और जीवन दोनों ही मशीन सा बन गया है। स्टाफ के साथी पुरुषों की  फ्लर्ट करने की नित नई कोशिशें कभी कभी भूखे भेड़ियों सी निगाहों में बदल जाती है... उन नजरों को अब सहन करना आसान नहीं हो रहा....कहते कहते मनीषा ने मुकेश की ओर याचना की नजर से देखा। ' तुम्हारा दिमाग तो ठीक है...कल मजाक में तुम्हे  नागेश के बारे में क्या कह दिया,तुम तो बहाने तलाशने लगी....क्या हो गया नागेश से बातें करती हो तो, वो काम भी तो कितने आता है... नोकरी छोड़ दूं कितना आसानी से कहा है...बच्चों की पढ़ाई के बढ़ते खर्चे,गाड़ी,प्लेट की किश्तों के साथ साथ घर के खर्चे भूल गयी क्या... ?  ' मैं भी इंसान हूँ,मेरी भी इच्छा होती है कि कुछ  तो आराम करूँ ऊपर से द्वि अर्थी मज़ाक करते लो...

सीख माँ की

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 ऑफिस से आये अपने पति संदीप का लंच बॉक्स खोला, तो आभा ने देखा करेले की सब्ज़ी जस की तस रखी थी,यह अलग बात थी कि उसने रोटी खा ली थी। सब्जी पड़ी है तो रोटी कैसे खाई होगी संदीप ने। ज़रूर उस छमिया के  साथ सब्ज़ी शेयर की होगी… बड़ी सज धज कर आती है.... जब से आई है ऑफिस को अपनी अंगुलियों पर नचाती है....संदीप भी जब देखो उसी की रट लगाए रखता है....आभा का पारा हाई था- आने दो संदीप को फिर पूछती हूं आख़िर कब तक चलेगा यह सब? कितने मन से मैंने उसकी पसंदीदा करेले की सब्जी बनाई...उसे पता भी है कि कितनी मेहनत लगती है....सासु माँ की बनाई सब्जी की तारीफ़ करता रहता है तो उनसे पूछ पूछ कर  बनाई....उनके ही कहने पर आंवले का पाउडर डाला था। उस छमिया के चक्कर में उसे भी नहीं खाया। फ्रेश होकर उसने आवाज़ लगाई, “ आभा....ओ री मेरी आभा... आज चाय मिलेगी या नहीं या सुबह की तरह मुझे ही चाय बनानी है मैडम के लिए…” संदीप की शुरू से आदत थी कि बेड टी वही बना कर देता है। जब से गौरव और अनुकृति पढ़ाई के लिए जयपुर गए हैं, तो आभा को भी सुबह जल्दी जागने की जल्दी नहीं होती। कोई दूसरा दिन होता तो संदीप की यही आवाज़ उसके कानों...

डायरी ख्वाहिशों की

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 कार जैसे-जैसे उदयपुर की ओर बढ़ रही थी,मन में उल्लास के साथ साथ कुछ चिन्ताएं भी घर करती जा रही थी। कैसा होगा माहौल मामा के घर का..? यही सोचकर मन परेशान हो उठता था,पर मन में खुशी थी लंबे समय बाद मामा के घर जा रही हूं।  बड़े भइया की बेटी पैदा होने के बाद? पिछली बार छोटे भइया के बेटा हुआ था, तो मामा के घर गयी थी। मामी को उस वक्त देखा था, कभी हलवाई को डपटती थीं, कभी भाभी को जाकर ममता भरी निगाहों से देख आती थीं ।अपनी बड़ी पोती को लाड़ करते हुए अनगिनत बार बोल चुकी थी  “छोटा भाई आ गया हमारी सिम्मी का…” ऐसी ही खुशी सिम्मी के जन्म पर भी दिखाई थी, लेकिन मेरे मन में तो वो उनकी ‘डायरी’ अटक गई थी,जो मैंने देख ली थी चुपके से पिछली बार जब पोता होने पर गयी थी।उनकी अनगिनत मनौतियां,उन मनोतियों को पूरा होने पर संकल्प औऱ पूरी होने पर सामने सही का निशान। मैं मन ही मन मुस्कुराने लगी थी कि तभी आगे लिखे शब्दों ने मुस्कुराहट रोक दी थी। ‘रामजी, अबकि पोता हो जाए, तो इस मंदिर में इतना प्रसाद, उस मंदिर की इतनी परिक्रमा… वहां पर इतने नारियल…’ मेरा मन खिन्न हो गया था। मामी जी से मुझे ये उम्मीद नहीं थी।उनक...

गलतफहमी

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 सरोज भाभी आज फिर बिफरी हुई थी राजेन्द्र पर । राजेन्द्र उनका देवर था,को कह रही थी'' आप से पराए अच्छे हैं, जिन्होंने  बुरे वक्त में हमारी सहायता की थी। '' '' हां भाभी, मैं भी यही चाहता था।'' राजेन्द्र ने धीरे से कहा। '' हां हां, मुझे पता है, आप क्या चाहते थे। हम भीख मांगे, अपनी जमीन आप के नाम कर दें।' ' सरोज भाभी ने क्रोध की आग को और तेज करते हुए कहा। राजेन्द्र ने फिर अपनी ही रो में कहा '' वह तो आप ने अब भी उस ट्रस्ट के नाम पर की है।'' '' हां की है। उस ट्रस्ट ने हमारी सहायता तब की थी, जब इसके पापा एक दुर्घटना में शांत हो गए थे। मगर, उस ट्रस्टी से मैं आज तक नहीं मिली।'' भाभी ने यह कह कर मुंह बनाया, ''आप से उनका वह पराया दोस्त अच्छा है जिसने हमें ट्रस्ट से सहायता दिलवाई थी। उसी की बदौलत आज मेरा बेटा एक सफल व्यापारी है।'' '' मैं भी यही चाहता था भाभी, यह आत्मनिर्भर बनें, किसी की सहायता के बिना।'' '' रहने दीजिए। आप की निगाहें तो हमारी जमीन पर थी। उसे हड़पना चाहते थे, मैं कि...

फ़र्ज़

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 भाभी जी बहू की डिलीवरी बस आराम से निबट जाए उसके बाद ही मैं चैन की नींद सोऊंगी....बस ठाकुरजी बहु और आने वाले नवजात को कुशल रखें... .कहते कहते वर्मा आंटी ने हाथ ऊपर की ओर जोड़कर मानों भगवान से प्रार्थना की। चिंता क्यों करती हो अंनत की माँ सब ठीक करेंगे ठाकुरजी। भरोसा रखो । जैसे जैसे अनिता की डिलिवरी डेट करीब आती जा रही थी वैसे ही अनंत की  की माँ परेशान लग रही थी। पिछले चार सालों से वर्मा परिवार हमारा पड़ोसी था। अनंत,उसकी पत्नी अनिता, मिसेज वर्मा जिसे सब वर्मा आंटी कहते थे और एक 5 साल का नटखट निहाल।   आज जब वो ठाकुरजी के हाथ जोडक़र कह रही थी तो सच ही कह रही थी।घर पर बहु के बाद काम करने वाली वह अकेली ही थी और वह भी पैरों से लाचार। घिसट-घिसट कर सारा काम करती थी।   सारे रिश्तेदारों से मिन्नत कर चुकी थी कि बहू की डिलीवरी के लिए आ जाए, हॉस्पिटल में दो-चार दिन रह जाए पर सब ने बच्चों के एग्जाम, स्कूल,ऑफिस कुछ ना कुछ काम बता कर कन्नी काट ली थी।  ठीक है भगवान के ऊपर छोड़ अनंत की माँ ने सोच लिया  ईश्वर जो करेंगे अच्छा ही होगा। अब किसी से जबरदस्ती तो कर नहीं सकती। आज वह दिन...

भाई

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  रानी आज खुशी खुशी बड़े जेठ के घर गई थी, मिलते रहना चाहिए यही सोचकर। मगर खोखले रिश्तों का अनर्गल प्रलाप सुन बेवजह की कड़वाहट से उसका मन दुःखी हो गया। वह रुआंसी हो उठकर चली आई। हालांकि सामान्य रहना चाहती थी मगर जिन रिश्तों को बरसों अपने त्याग और संयम से सींचती रही उन्हें दरकते देख ऐसा होना आसान नहीं था।    सोचा था जेठ-जेठानी और परिवार के साथ दो-तीन घण्टे बिताएंगी, पर आधा घंटा ही नहीं रुक पाई। इसलिए समय था उसके पास। मां का घर पास ही था तो मिलने पहुंच गई। घर पहुंची तो मां बाऊजी ने उसे खुशी से गले लगाया। उसके बच्चों की उम्र का छोटा भाई तपन दौड़ कर पानी लाया। उनके बीच आकर वह कुछ पल के लिए मन का दर्द भूल गई। फिर भी शायद उसके स्वर में थोड़ी बहुत वेदना शेष थी। मैं चाय बनाकर लाता हूं, कहता हुआ वरुण रसोई में घुस गया। चाय बनने के लिए रखने वाली आवश्यक खटपट की आवाजें रसोई से आनी बंद हुईं तो वरुण ने उसे पुकारा दीदी चीनी कितनी डालूं? तुम्हें पता तो है एक चम्मच। नहीं, नहीं, यहां आकर बताओ। वह अनमनी सी उठकर चली गई, क्या बात है? पहले आप बताओ क्या बात हुई है, जो आप इतनी उदास हैं?वह च...

काकी

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  तुम्हें कहो कुछ तुम करते कुछ हो यार.....तुम भी हनुमान जी की तरह पूरा पहाड़ उठा लाते हो..रसोई से सुमन ने मनोज को उलाहना देते हुए कहा।  तुम्हें तिल के लड्डू लाने को कहा था और ये तिल ले आये। मनोज के सामने तिल का पैकेट रखते हुए कहा। “मुझे कहां आता है लड्डू बनाना। प्रसाद के लिए बाज़ार से बने बनाये ले आते, झंझट ख़त्म.” सुमन अब खीज कर बोली। “क्या करूं यार दुकानदार ने जबरन पकड़ा दिए,बोला भाई घर का शुद्ध खाकर देखो।. इंटरनेट पर देख लेना बहुत सी विधियां मिल जाएंगी लड्डू बनाने की,वो सबका गुरु है।” मनोज बोला और ऑफिस के लिए निकल गया। सुमन ने तीन-चार विधियां देख लीं, लेकिन कुछ समझ नहीं आया। ठीक नहीं बनी या बिगड़ गई, तो तिल और सामान बेकार हो जाएंगे।  तभी पड़ोस की निर्मला काकी का ध्यान आया। काकी से पूछकर बनाऊंगी, तो बिगड़ने पर पूछ तो पाऊंगी कि अब क्या करूं? पर आज तक तो कभी उनके पास जाकर बैठी नहीं अब अपने काम के लिए जाना क्या अच्छा लगेगा.?लेकिन कोई चारा नहीं था, तो पहुंच गई। “ आओ-आओ बहु ” काकी उसे देखते ही खिल उठी। “वो काकी मुझे तिल के लड्डू बनाने थे। क्या आप मुझे बता दोगे, थोड़ा टाइम तो लगेग...